मैं क्यों लिखता हूँ !
कवी: नजार क़ब्बानी
हिंदी अनुवाद: तबरेज़ अहमद
लिखता हूँ,
ताकि धमाका कर सकूँ,
क्योंकि, लिखना ही धमाका करना है |
लिखता हूँ,
ताकि अंधेरे पर रौशनी की जीत हो सके,
क्योंकि कविता करना ही विजय हासिल करना है |
लिखता हूँ,
ताकि पढ़ सके मुझे
पेड़ पौधे और गेहूं के दाने,
ताकि समझ सके मुझे
गुलाब के फूल, तारे और गौरय्या,
बिल्ली, मछली, सीपियाँ |
लिखता हूँ,
ताकि बचा सकू दुन्य को
हलाकू के ज़ुल्म से,
गुंडा गर्दी से,
पागल नेताओं के आदेश से|
लिखता हूँ,
ताकि बचा सकु औरतों को
जालिमों के अत्याचार से, कुब्बा व दस्तार से,
मुर्दा शहरों से,
बहुविवाह से,
अफ्सुर्दगी से, बेरंगी, फीकेपन से, सूखेपन से |
लिखता हूँ,
ताकि बचा सकु शब्द को
पूछताछ से, कुत्तों की नाक से
कर्गस की आँख से |
लिखता हूँ,
ताकि बचा सकूँ
अपनी प्रेमिकाओं को
बेहिसी से, अप्रेम से, हताशा से , अवसादहीनता से|
लिखता हूँ,
ताकि बना सकु उसको अपना पैगम्बर, अपना आइकन, अपना साया-
अगर औरतें और किताबें न हों
तो हमे मौत से कौन बचाएगा |